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रामचरितमानस में वाक़ई दलितों और औरतों का अपमान है?

जन्म में राम, मरण में राम. वाह में राम, आह में राम. उत्साह में राम, स्याह में राम.

राम को पंडों की परिधि से जन-जन की ज़ुबान पर पहुँचाने के लिए गोस्वामी तुलसीदास को बहुत कुछ सहना पड़ा था.

वाल्मीकि ने रामायण संस्कृत में लिखी थी. ऐसा माना जाता है कि रामायण पाँचवीं सदी ईसा पूर्व से पहली सदी ईसा पूर्व के बीच लिखी गई थी.

तुलसीदास ने रामायण के आधार पर ही अवधी भाषा में रामचरितमानस लिखी.

साहित्य के इतिहासकारों के अनुसार, तुलसीदास ने अयोध्या में रामनवमी के दिन साल 1574 से रामचरितमानस लिखने की शुरुआत की थी.

तुलसी की रामचरितमानस की पांडुलिपि नष्ट करने की भी कोशिश की गई थी.

भारत के पूर्व राजनयिक और भारतीय समाज के साथ संस्कृति पर गहरी नज़र रखने वाले पवन कुमार वर्मा ने अपनी किताब ‘द ग्रेटेस्ट ओड टु लॉर्ड राम: तुलसीदास रामचरित मानस’ में लिखा है कि तुलसीदास ने रामचरितमानस की पांडुलिपि की एक कॉपी अकबर के दरबार में नौरत्नों में से एक और वित्त मंत्री टोडरमल को दे दी थी ताकि सुरक्षित रहे.

काशी के पंडे इस बात से नाराज़ थे कि तुलसीदास राम को देवभाषा संस्कृत से अलग क्यों कर रहे हैं. तुलसीदास का जीवन सफ़र एक अनाथ और आम रामबोला से गोस्वामी तुलसीदास बनने का है.

तुलसीदास की जीवनी पर ‘मानस का हंस’ उपन्यास लिखने वाले अमृतलाल नागर ने लिखा है, ”जनश्रुतियों के अनुसार, तुलसीदास अपनी बीवी से ऐसे चिपके हुए थे कि उन्हें मैके तक नहीं जाने देते थे. ‘तन तरफत तुव मिलन बिन’ दोहे के बारे में कहा जाता है कि तुलसी ने अपनी पत्नी के लिए लिखा था. मुझे लगता है कि तुलसी ने काम ही से जूझ-जूझ कर राम बनाया है. ‘मृगनयनि के नयन सर को अस लागि न जाहि’ उक्ति भी गवाही देती है कि नौजवानी में वह किसी तीरे-नीमकश से बिंधे होंगे. नासमझ जवानी में काशी निवासी विद्यार्थी तुलसी का किसी ऐसे दौर से गुज़रना अनहोनी बात भी नहीं है.”

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